खुदखुशी तो नाम है साहब।
यह कहाँ अपनी खुद की खुशी से की जाती।
पंखे पर झूलने से पहले उसने भी सौ बार पंखे की ओर देखा होगा,
भिन्न-भिन्न विचारों ने उसके दिलों दिमाग को सेंका होगा।
एक अजीब-सी कशमकश चली होगी उसके दिल में,
कभी माँ-बाबा का ख्याल आया होगा,
तो कभी अपने छोटे भाई की भोली सूरत नजर आई होगी,
पर शायद दिमाग ने उसके दिल की एक न सुनी होगी।
वो हैरान थी, परेशान थी
पर कोई ना जाने उसकी हैरानी के पीछे की कहानी क्या थी,
ना कोई नोट छोड़ा,
ना किसी को अपनी परेशानी बताई,
बस अपने अंदर ही अंदर लड़ी उसने लड़ाई।
पर अफसोस हार गई वो यह लड़ाई,
उसने न अपने दिल की दिमाग को सुनाई,
कुर्शी पर चढ़ते वक्त वो लड़खड़ाई होगी,
फंदा हाथ से फिसला होगा,
फिर बैठ कर उसने विचार बदलने का सोचा होगा,
पर! पर!
यह दिमाग है साहिब, जब अपनी पे आता है तो क्या सही क्या गलत,
फिर क्या बिन घबराये उसने मौत को गले लगा लिया होगा।
और अपने पीछे, छोड़ गई ईक बड़ा रहस्य।
अब वो पंखा रोता होगा,
अपने आप को कोशता होगा,
और सोचता होगा,
जिसको अबतक में राहत देते आ रहा था ,
अब,उसके लिए आफत बन गया।
कहने को तो खुदखुशी थी साहिब,
पर उसने कहाँ वो अपनी खुद की खुशी से की होगी।
written by Sachin Korla
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